भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी भगवान अनन्त का व्रत रखकर मनायी जाती है। इस व्रत के नाम से लक्षित होता है कि यह दिन उस अन्त न होने वाले सृष्टि के कर्ता विष्णु की भक्ति का दिन है।
“अनन्त सर्व नागानामधिपः सर्वकामदः, सदा भूयात् प्रसन्नोमे यक्तानामभयंकरः ।’
मन्त्र से पूजा करनी चाहिए। यह विष्णु कृष्ण रूप हैं और शेषनाग काल रूप में विद्यमान हैं। अतः दोनों की सम्मिलित पूजा हो जाती है।
विधान : स्नान करके कलश की स्थापना की जाती है। कलश पर अष्ट दल कमल के समान बने बर्तन में कुशा से निर्मित अनन्त भगवान की स्थापना की जाती है। उसके समीप 14 गांठ लगाकर हल्दी से रंगे कच्चे डोरे को रखें और गन्ध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य से पूजन करें। तत्पश्चात् अनन्त भगवान का ध्यान कर शुद्ध अनन्त को अपनी दाईं भुजा में बाँधना चाहिए। यह धागा अनन्त फल देने वाला है। अनन्त की चौदह गाँठे चौदह लोकों की प्रतीक हैं। उनमें अनन्त भगवान विद्यमान हैं।
कथा : एक बार महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया। यज्ञ मंडप का निर्माण सुन्दर तो था ही अद्भुत भी था। उसमें स्थल में जल और जल में स्थल की भ्रांति होती थी। यज्ञ मंडप की शोभा निहारते निहारते दुर्योधन एक जगह को स्थल समझकर कुण्ड में जा गिरा। द्रोपदी ने उसका उपहास उड़ाते हुए कहा कि अंधे की संतान भी अंधी है।
यह बात उसके हृदय में बाण की तरह चुभ गई। कुछ दिनों बाद इसका बदला लेने के लिए पांडवों को हस्तिनापुर
बुलाकर द्यूत क्रीड़ा में छल से परास्त किया। परास्त होकर • पांडवों को बारह वर्ष का वनवास भोगना पड़ा। वन में रहते हुए पांडवों को अनेक कष्टों को सहना पड़ा। एक दिन वन में युधिष्ठिर से मिलने भगवान श्रीकृष्ण आए। युधिष्ठिर ने उनसे सब वृतान्त कह सुनाया और उसे दूर करने का उपाय पूछा। तब कृष्ण ने उन्हें भगवान अनन्त का व्रत करने को कहा। इससे तुम्हारा खोया हुआ राज्य फिर प्राप्त हो जायेगा।
इसके बाद श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को एक कथा सुनाई। प्राचीन काल में सुमन्त नाम के ब्राह्मण के एक सुशीला नाम की कन्या थी। बड़ी होने पर ब्राह्मण ने सुशीला का विवाह कौण्डिल्य ऋषि से कर दिया। कौण्डिल्य ऋषि सुशीला को लेकर अपने आश्रम को चल दिए। रास्ते में रात हो जाने पर वे नदी तट पर सन्ध्या करने लगे। सुशीला ने वहाँ पर बहुत सी स्त्रियों को किसी देवता की पूजा करते देखा। सुशीला के पूछने पर उन्होंने विधिपूर्वक अनन्त व्रत की महत्ता समझा दी। सुशीला ने वहीं उस व्रत का अनुष्ठान करके चौदह गाँठों वाला डोरा हाथ में बाँध लिया और अपने पति के पास आ गई।
कौण्डिल्य ऋषि ने सुशीला से हाथ में बँधे धागे के बारे में पूछा तो उसने सारी बात समझा दी। कौण्डिल्य सुशीला की ‘ बातों से अप्रसन्न हो गये तथा उसके हाथ में बँधे डोरे को अग्नि में डाल दिया। यह अनन्त भगवान का अपमान था। कौण्डिल्य ऋषि की सुख सम्पत्ति नष्ट हो गई। सुशीला ने इसका कारण डोरे की जलने की बात दोहराई। पश्चाताप करते हुए ऋषि भगवान अनन्त की खोज में वन में चले गए। जब वे भटकते भटकते निराश होकर गिर पड़े और बेहोश हो गये तो भगवान अनन्त दर्शन देकर बोले- “हे कौण्डिल्य! मेरे अपमान के कारण ही तुम्हारे ऊपर यह मुसीबतों का पहाड़ टूटा है।” तुम्हारे पश्चाताप के कारण मैं प्रसन्न हूँ। आश्रम जाकर चौदह वर्ष तक विधि विधानपूर्वक अनन्त व्रत करो। तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जायेंगे। कौण्डिल्य ने वैसा की किया। उन्हें सारे कष्टों से मुक्ति मिल गई।
श्रीकृष्ण की आज्ञा मानकर युधिष्ठिर ने अनन्त भगवान का व्रत किया, जिसके प्रभाव से पांडवों को महाभारत युद्ध विजय प्राप्त हुई।