भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी गणेश चतुर्थी के नाम से प्रसिद्ध है। इस दिन प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त होकर सोना, तांबा, चाँदी, मिट्टी या गोबर से गणेश की मूर्ति बनाकर उसकी पूजा करनी चाहिए। पूजन के समय इक्कीस मोदकों का भोग लगाते हैं तथा हरित दुर्वा के इक्कीस अंकुर लेकर निम्न दस नामों पर चढ़ाने चाहिए
1. गतापि, 2. गोरी सुमन, 3. अघनाशक, 4. एकदन्त, 5. ईशपुत्र, 6. सर्वसिद्धिप्रद, 7. विनायक, 8. कुमार गुरु,
9. इंभवक्त्राय और 10. मूषक वाहन संत ।
तत्पश्चात् इक्कीस लड्डुओं में से दस लड्डू ब्राह्मणों को दान देना चाहिए तथा ग्यारह लड्डू स्वयं खाने चाहिए।
कथा : एक बार भगवान शंकर स्नान करने के लिए भोगवती नामक स्थान पर गए। उनके चले जाने के पश्चात् पार्वती ने अपने तन की मैल से एक पुतला बनाया जिसका नाम उन्होंने गणेश रखा। गणेश को द्वार पर एक मुदगल देकर बैठाया कि जब तक मैं स्नान करूँ किसी पुरुष को अन्दर मत आने देना ।
भोगवती पर स्नान करने के बाद जब भगवान शंकर आए तो गणेश जी ने उन्हें द्वार पर रोक दिया। क्रुद्ध होकर भगवान शंकर ने उसका सिर धड़ से अलग कर दिया और अन्दर चले गये। पार्वतीजी ने समझा कि भोजन में विलम्ब होने के कारण. शंकर जी नाराज हैं। उन्होंने फौरन दो थालियों में भोजन परोसकर शंकरजी को भोजन करने को बुलाया। शंकरजी ने दो थाल देखकर पूछा – दूसरा थाल किसके लिए लगाया है ? “पार्वतीजी बोली- दूसरा थाल पुत्र गणेश के लिए है।” जो बाहर पहरा दे रहा है। यह सुनकर शंकर जी ने कहा, “मैंने तो उसका सिर काट दिया है।” यह सुनकर पार्वतीजी बहुत दुःखी हुईं और प्रिय गणेश को पुनः जीवित करने की प्रार्थना करने लगीं। शंकर जी ने तुरन्त के पैदा हुए हाथी के बच्चे का सिर काटकर बालक के धड़ से जोड़ दिया। तब पार्वतीजी ने प्रसन्नतापूर्वक
पति – पुत्र को भोजन कराकर स्वयं भोजन किया। यह घटना पति -पुत्र भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को हुई थी, इसलिए का नाम गणेश चतुर्थी पड़ा।