माहात्म्य : आषाढ़ शुक्ल एकादशी को देवशयनी एकादशी Devshayani Ekadashi कहते हैं। पुराणों में उल्लेख आया है कि इस दिन से भगवान विष्णु चार मास तक पाताल लोक में बलि के द्वार पर विश्राम शयन निवास करते हैं और कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को प्रस्थान करते हैं। इसी कारण इसे देवशयनी एकादशी तथा कार्तिक मास वाली एकादशी को देवोत्थानी एकादशी कहते हैं। आषाढ़ मास से कार्तिक मास तक के समय को चातुर्मास्य कहते हैं। इसलिए इन चार महीनों किसी प्रकार का मांगलिक कार्य करना निषेध माना गया है। देवशयन के साथ ही विवाह, उपनयन, गृहप्रवेश आदि शुभकर्म नहीं किए जाते हैं। इन चार महीनों में भगवान क्षीर सागर की अनन्त शैया पर शयन करते हैं। इन दिनों भ्रमण वर्जित होने के कारण साधु, संत, संन्यासी एक ही स्थान पर रहकर तपस्या करते हैं।
पूजन विधि-विधान – इस दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर घर की साफ-सफाई करके स्नान आदि से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करें। इसके बाद भगवान सूर्य को जल का अर्घ्य दें। घर के पूजन स्थल पर प्रभु श्री हरि विष्णु की सोने, चाँदी, तांबे अथवा पीतल की मूर्ति की स्थापना करें। तत्पश्चात उसका षोड्शोपचार सहित पूजन करें। फिर उन्हें श्वेतवस्त्र पहनाकर श्वेतवर्ण की शय्या पर शयन कराएं। तत्पश्चात व्रत कथा सुननी चाहिए। इसके बाद आरती कर प्रसाद वितरण करें।
कथा : सतयुग में मान्धाता नगर में एक चक्रवती राजा राज्य करता था। एक बार उसके राज्य में तीन वर्ष तक का सूखा पड़ गया। राजा के दरबार में प्रजा ने दुहाई मचाई। राजा सोचने लगा कि मेरे से तो कोई बुरा काम नहीं हो गया जिससे मेरे राज्य में सूखा पड़ गया। राजा प्रजा का दुःख दूर करने के लिए जंगल में अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुँचे। मुनि ने राजा का आश्रम में आने का कारण पूछा। राजा ने कर-बद्ध होकर प्रार्थना की, “भगवान मैंने सब प्रकार से धर्म का पालन किया है फिर भी मेरे राज्य में सूखा पड़ गया।” तब ऋषि ने आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत करने को कहा। इस व्रत के प्रभाव से अवश्य वर्षा होगी।
राजा राजधानी लौट आया और एकादशी का व्रत किया ! राज्य में व्रत के प्रभाव से मूसलाधार वर्षा हुई और राज्य में खुशियाँ छा गईं।