प्रदोष व्रत – Pradosh Vrat सायंकाल के बाद और रात्रि के पूर्व दोनों के बीच का विशेष समय है, जिसे हम प्रदोष कहते हैं। इस समय में भगवान शंकर की पूजा करने वाले को इस व्रत का पालन करना चाहिए।

इस व्रत करने वाले को त्रयोदशी के दिन दिनभर भोजन करना नहीं चाहिए। शाम के समय, जब सूर्यास्त में तीन घड़ी का समय शेष रह जाता है, उस समय स्नान और अन्य कर्मों के बाद श्वेत वस्त्र धारण करके संध्यावन्दन करना चाहिए। इसके बाद, भगवान शिव की पूजा का आरंभ करें। पूजा स्थान को साफ़ पानी से धोकर एक मण्डप बनाएं, जिसमें पाँच रंगों के पुष्पों से बनी पद्म की आकृति बनाकर कुश का आसन बिछा जाए, और फिर आसन पर पूर्वाभिमुख बैठ जाएं।

इसके बाद, भगवान महेश्वर का ध्यान करें। ध्यान का स्वरूप है – करोड़ों चन्द्रमा के समान कान्तिवान, त्रिनेत्रधारी, मस्तक पर चन्द्रमा का आभूषण धारण करने वाले पिंगलवर्ण के जटाजूटधारी, नीले कण्ठ तथा अनेक रूद्राक्ष मालाओं से सुशोभित हैं। वह वरदहस्त हैं, जिनमें त्रिशूल भी धारण किया हुआ है। उनके कानों में नागों के कुण्डल हैं और वे व्याघ्र चर्म धारण किए हुए हैं, जो एक रत्नजड़ित सिंहासन पर विराजमान हैं।

इस ध्यान के माध्यम से हम भगवान शिव की अद्वितीयता, शक्ति, और निराकार स्वरूप का अनुभव करते हैं। उनके त्रिनेत्र और त्रिशूल से हमें सृष्टि, स्थिति, और संहार की शक्ति का अनुभव होता है। उनके चन्द्रमा के समान तेज और कान्ति से हमें उनकी अद्भुतता का आभास होता है। यह ध्यान शिवभक्तों को मानसिक शांति, आत्मा के आत्मगुन से मिलती है और उन्हें भगवान के साथ सम्पूर्ण एकता का अनुभव करने का साधन करता है।

प्रदोष व्रत के उद्यापन की विधि – Prados Vrat Ke Udyapan Ki Vidhi

उद्यापन से एक दिन पूर्व श्री गणेश जी का पूजन किया जाता है एक दिन पूर्व ही रात्रि में कीर्तन करते हुए जागरण करना चाहिए। प्रातः स्नान और अन्य संस्कारों के बाद रंगीन वस्त्रों से मण्डप बनाना चाहिए। इस मण्डप में शिव-पार्वती की प्रतिमा स्थापित करके विधिवत पूजा करनी चाहिए।

तत्पश्चात्, शिव-पार्वती के उद्देश्य से खीर से अग्नि में हवन करना चाहिए। हवन के समय ‘ॐ उमा सहित-शिवाय नमः’ मन्त्र से १०८ बार आहुति देनी चाहिए। इसी प्रकार, ‘ॐ नमः शिवाय’ के उच्चारण के साथ भगवान शंकर के नाम पर आहुतियाँ देनी चाहिए। हवन के अंत में, धार्मिक व्यक्ति को सामर्थ्य के अनुसार दान देना चाहिए।

इसके बाद, ब्राह्मण को भोजन और दक्षिणा से संतुष्ट करना चाहिए। व्रत पूर्ण होने पर ब्राह्मणों की आज्ञा प्राप्त करके व्रती को भोजन करना चाहिए। इस प्रकार, उद्यापन करने से व्रती पुत्र-पौत्रादि से युक्त होता है, आरोग्य लाभ करता है, और शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है।

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