॥ दोहा ॥
जय गणपति, सदगुण सदन,
कविवर बदन, कृपाल ।
विघ्न हरण, मंगल करण,
जय जय, गिरिजा लाल ॥
॥ चौपाई ॥
जय जय जय, गणपति गणराजू ।
मंगल भरण, करण शुभः काजू ॥
जै गज़ बदन, सदन सुखदाता ।
विश्व विनायक, बुद्धि विधाता ॥
वक्र तुण्ड शुची, शुण्ड सुहावन ।
तिलक त्रिपुण्ड, भाल मन भावन ॥
राजत मणि, मुक्तन उर माला ।
स्वर्ण मुकुट, शिर नयन विशाला ॥
पुस्तक पाणि, कुठार त्रिशूलं ।
मोदक भोग, सुगन्धित फूलं ॥
सुन्दर, पीताम्बर तन साजित ।
चरण पादुका, मुनि मन राजित ॥
धनि शिव सुवन, षडानन भ्राता ।
गौरी लालन, विश्व-विख्याता ॥
ऋद्धि-सिद्धि तव, चंवर सुधारे ।
मुषक वाहन, सोहत द्वारे ॥ 8 ॥
कहौ जन्म शुभ, कथा तुम्हारी ।
अति शुची पावन, मंगलकारी ॥
एक समय, गिरिराज कुमारी ।
पुत्र हेतु तप, कीन्हा भारी ॥ 10 ॥
भयो यज्ञ जब, पूर्ण अनूपा ।
तब पहुंच्यो तुम, धरी द्विज रूपा ॥
अतिथि जानि के, गौरी सुखारी ।
बहुविधि सेवा, करी तुम्हारी ॥ 12 ॥
अति प्रसन्न, हवै तुम वर दीन्हा ।
मातु पुत्र हित, जो तप कीन्हा ॥
मिलहि पुत्र तुहि, बुद्धि विशाला ।
बिना गर्भ, धारण यहि काला ॥ 14 ॥
गण नायक, गुण ज्ञान निधाना ।
पूजित प्रथम, रूप भगवाना ॥
अस कही अन्तर, धान रूप हवै ।
पालना पर, बालक स्वरूप हवै ॥ 16 ॥
बनि शिशु रुदन, जबहिं तुम ठाना ।
लखि मुख सुख, नहिं गौरी समाना ॥
सकल मगन, सुख मंगल गावहिं ।
नाभ ते सुरन, सुमन वर्षावहिं ॥ 18 ॥
शम्भु उमा, बहुदान लुटावहिं ।
सुर मुनि जन सुत, देखन आवहिं ॥
लखि अति आनन्द, मंगल साजा ।
देखन भी, आये शनि राजा ॥ 20 ॥
निज अवगुण गुनि, शनि मन माहीं ।
बालक देखन, चाहत नाहीं ॥
गिरिजा कछु मन, भेद बढायो ।
उत्सव मोर न, शनि तुही भायो ॥ 22 ॥
कहत लगे शनि, मन सकुचाई ।
का करिहौ शिशु, मोहि दिखाई ॥
नहिं विश्वास, उमा उर भयऊ ।
शनि सों बालक, देखन कहयऊ ॥ 24 ॥
पदतहिं शनि दृग, कोण प्रकाशा ।
बालक सिर उड़ि, गयो अकाशा ॥
गिरिजा गिरी, विकल हवै धरणी ।
सो दुःख दशा, गयो नहीं वरणी ॥ 26 ॥
हाहाकार, मच्यौ कैलाशा ।
शनि कीन्हों लखि, सुत को नाशा ॥
तुरत गरुड़ चढ़ि, विष्णु सिधायो ।
काटी चक्र सो, गज सिर लाये ॥ 28 ॥
बालक के धड़, ऊपर धारयो ।
प्राण मन्त्र पढ़ि, शंकर डारयो ॥
नाम गणेश, शम्भु तब कीन्हे ।
प्रथम पूज्य, बुद्धि निधि वर दीन्हे ॥ 30 ॥
बुद्धि परीक्षा, जब शिव कीन्हा ।
पृथ्वी कर, प्रदक्षिणा लीन्हा ॥
चले षडानन, भरमि भुलाई ।
रचे बैठ तुम, बुद्धि उपाई ॥ 32 ॥
चरण मातु, पितु के धर लीन्हें ।
तिनके सात, प्रदक्षिण कीन्हें ॥
धनि गणेश कहि, शिव हिये हरषे ।
नभ ते सुरन, सुमन बहु बरसे ॥ 34 ॥
तुम्हरी महिमा, बुद्धि बड़ाई ।
शेष सहस मुख, सके न गाई ॥
मैं मतिहीन, मलीन दुखारी ।
करहूं कौन विधि, विनय तुम्हारी ॥ 36 ॥
भजत राम, सुन्दर प्रभु दासा ।
जग प्रयाग, ककरा दुर्वासा ॥
अब प्रभु दया, दीन पर कीजै ।
अपनी शक्ति, भक्ति कुछ दीजै ॥ 38 ॥
॥ दोहा ॥
श्री गणेश यह चालीसा,
पाठ करै कर ध्यान ।
नित नव मंगल गृह बसै,
लहे जगत सन्मान ॥
सम्बन्ध अपने सहस्त्र दश,
ऋषि पंचमी दिनेश ।
पूरण चालीसा भयो,
मंगल मूर्ती गणेश ॥
बोलिए गणपति महाराज की,,, जय
Author: अनिलरामूर्तिभोपाल