प्रातः स्मरामि गणनाथमनाथबन्धुं सिंदूरपूरपरिशोभित गण्डयुग्मम् ।
उद्दण्डविघ्नपरिखण्डनचण्डदण्डं आखण्डलादि सुरनायक वृन्दवन्द्यम् ॥ १ ॥

प्रातर्नमामि चतुरानन वन्द्यमानं इच्छानुकूलमखिलंच फलं ददानम् ।
तं तुंदिलं द्विरसनाधिप यज्ञसूत्रं पुत्रं विलासचतुरं शिवयोः शिवाय ॥२ ॥

प्रातर्भजाम्यभयदं खलु भक्तशोक-दावानलं गणविभुं वरकुंजरास्यम् ।
अज्ञानकाननविनाशनहव्यवाहं उत्साहवर्धनमहं सुतमीश्वरस्य ॥ ३ ॥

श्लोकत्रयमिदं पुण्यं सदा साम्राज्यदायकम् ।
प्रातरुत्थाय सततं यः पठेत्प्रयतः पुमान् ॥ ४ ॥

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