शीश गंग अर्धंग पार्वती,
सदा विराजत कैलासी !
नंदी भृंगी नृत्य करत हैं,
धरत ध्यान सुर सुखरासी !!
शीतल मन्द सुगन्ध पवन,
बह बैठे हैं शिव अविनाशी !
करत गान-गन्धर्व सप्त स्वर,
राग रागिनी मधुरासी !!
यक्ष-रक्ष-भैरव जहँ डोलत,
बोलत हैं वनके वासी !
कोयल शब्द सुनावत सुन्दर,
भ्रमर करत हैं गुंजा-सी !!
कल्पद्रुम अरु पारिजात तरु,
लाग रहे हैं लक्षासी !
कामधेनु कोटिन जहँ डोलत,
करत दुग्ध की वर्षा-सी !!
सूर्यकान्त सम पर्वत शोभित,
चन्द्रकान्त सम हिमराशी !
नित्य छहों ऋतु रहत सुशोभित,
सेवत सदा प्रकृति दासी !!
ऋषि मुनि देव दनुज नित सेवत,
गान करत श्रुति गुणराशी !
ब्रह्मा, विष्णु निहारत निसिदिन,
कछु शिव हमकूँ फरमासी !!
ऋद्धि-सिद्धि के दाता शंकर,
नित सत् चित् आनन्दराशी !
जिनके सुमिरत ही कट जाती,
कठिन काल यमकी फांसी !!
त्रिशूलधरजी का नाम निरन्तर,
प्रेम सहित जो नर गासी !
दूर होय विपदा उस नर की,
जन्म-जन्म शिवपद पासी !!
कैलासी काशी के वासी,
विनाशी मेरी सुध लीजो !
सेवक जान सदा चरनन को,
अपनो जान कृपा कीजो !!
तुम तो प्रभुजी सदा दयामय,
अवगुण मेरे सब ढकियो !
सब अपराध क्षमाकर शंकर,
किंकर की विनती सुनियो !!
शीश गंग अर्धंग पार्वती,
सदा विराजत कैलासी !
नंदी भृंगी नृत्य करत हैं,
धरत ध्यान सुर सुखरासी !!
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